Saturday, March 11, 2017

इंसान ये तेरा इतना , दिलचला है


ढनढन घर  में  ,
टाट का  पैबंद है।
ढकने को तन है ,
अर्थ के आभाव में ,
ठंडी गर्मी , बारिश ,
लिपलिपाते ही ,नंगे बदन है।

मजमून इतने तंगी में ,
कैसे इस अंजुमन में ,
इंसान ये तेरा इतना,
निहायत ही सभ्य है।  

घर है ,  घर के बाहर , एक गली है ,
टिप टिप सी  बारीश में,
खोजे है गली है या गड्ढा है।
ऐसे आसियाने में ,
कालिख में  रहते भी ,
कीचड़ के छिटो से ,बचते बचाते ,
ख्वाबो का कारवाँ उड़ाते ,
इंसान ये तेरा , पत्थर सा  अविचल  है।

मच्छर है , मक्खी है ,
कीड़े है, मकोड़े है,
धोखे है , मक्कारी है।
सियासत की पिचकारी से ,
इंसान , तेरे इस लश्कर को ही, नुकसान है ।

लेकिन किन्तु परंतु  या और भी उपमा है ,
इस बर्रे में भिनभिनाते,
हड़्ड़ो का सितमगर  काफिला है।
डगमग इस डगर पे , निश्चित ,
कुदरत की खुदाई का ही, ये  जलवा है ,
जो कि पल पल के बलवे  में भी ,
इंसान ये तेरा इतना , दिलचला है।

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Wednesday, March 8, 2017

भूखी जिंदगी


अर्थ की प्रार्थना है , अनर्थ की प्रसाद है  ,
जिंदगी अपनी तो , एक जीवंत अवसाद है।

गरीबी , लाचारी , हकीकत की ये  बेचारगी  ,
कौन जिन्दा  ?
यहाँ सब मरे पड़े , इस  मुफलिसी बेचारगी के मियाद में।

हाथ पे हाथ धरे बैठे है , काम की तलाश है ,
दिन में चाँद तारे देखते , राते बीते ,भूखे पेट।

मज़बूरी ,मुफलिशी , मुमकिन नहीं ये जिंदगी है।
खुदा  भी बंद आंख , बंद कान कर,
न बताये, ये बंदिगी, ये  आवारगी , क्यों  कुछ ही करते।

करने की तमन्ना  है , इरादा है , दिल नेक है ,
यकीन किसको ,  मिलती है सजा दौड़ने की,
हर भूख को , और भूख से ।

आज तो कोख चिपका गुजरता, कल तो निश्चित  ही मरता।
शर्मिंदिगी भूल कर , वो  दौड़ती भूख की इस होड़ में।

बहुत है ज्यादा , बहुत है कम , , सारे सपने है पराये।
समाज की ये निर्देशिका , बनाये क्यों ?
इस भ्र्म में हर वक्त, अवसान  है, जिंदगी ,भूखी बेदम।

दौर ये शोर का है , सुन रहा खुदा भी  नही ,
बिक गई है शोख़िया जिंदगी की ,पूंजी के बाजार में।

अठखेलिया ले रही है ,सड़क पे , हाथ फैलाये ,
भूखी जिंदगी मर रही ,  पूंजी तंत्र के गठजोड़ के, इस दौर में।

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Tuesday, March 7, 2017

शांति के नवसंचार को

सोच अपनी निःशब्द है , नीति  भी स्तब्ध है।
समाज में बचा कौन , व्यग्र है  सभी यहाँ ,
विकास की  इस राह में , सर्वत्र भस्मासुर यहाँ।

जवलन्त विषय ख़ामोश है ,दुराचार का संचार है।
पतन है व्यक्ति का , समाज का , नैतिक मूल्य का।
निज स्वार्थ में खोये आपा सब ,
सोचे कौन ,सब है  गौण।

वर्तमान अपना शून्य है ,
समाज  भी पूर्णरूपेण मूर्धन्य है।

हम कौन ,
रुग्ण है  , निष्प्राण है , एक अभिशाप है।
इस समाज के जीवंत, कोढ़ के प्रतिबिम्ब है।

विषय ,प्रसांगिकता ,अन्वेषण का ,पता नहीं ,
युद्ध  का अभिषेक कर, बस  लड़ पड़े  है।

चारो ओर हाहाकार है , विध्वंश  की चीत्कार है।
क्या सोच कर ,  प्रतिकार कर ,
सृष्टि का तिरस्कार कर,  क्यों चल पड़े है ,
अधीर बन ,सर्वविनाश को।

विराम क्यों है , ठहराव  क्यों है  ,यशस्वी हो ,
निकल  पड़ो , उत्थान की राह पर।

नवयुग का सूत्रपात्र कर , युगपरुष  बन ,
बस चल पड़ो शांति के नवसंचार को ।

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ये जमी है अपनी हिंदोस्तान की ।



बसते  है, फरिश्ते हर डाल पर ,
कहते है हम इसे हिंदोस्तान।

मौसम है, जहाँ खुशनुमा ,
आबोहवा है ,यहाँ हर ओर जंवा, ये जमी  है अपनी हिंदोस्तान की ।


हर रात यहाँ  रौशनी ,  कातिल यहाँ कोई नहीं ,
सैयाद भी गाते जहा , प्यार  के  नगमें सदा।
कहते  है दुनिया में, अगर कोई जन्नत है कही ,
वो  जमी कोई और नहीं ,  वो हिन्दोस्तान है।


बहती है गंगा चतुरार्थ  की ,
खेतो  में है फसल पुरुसार्थ की।
क्या आदमी क्या जानवर ,
मिलजुलकर हर जीव जहाँ,
संबल देता अनेको अनुष्ठान की ,  ये जमी  है अपनी हिंदोस्तान की ।

वक्त की जहाँ पहचान है ,
संसार की हर जीव का जहाँ सम्मान है, वो  हिंदोस्तान है ।


हर सख्स यहाँ शहंशाह  है,
हर गुलिस्तां यहाँ गुलजार है  ,
हर पर्व  है यहाँ उल्लास का ,
हर पैगाम है यहाँ अमन  का  ,   ये जमी  है अपनी हिंदोस्तान की ।


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Monday, February 27, 2017

कुछ ऐसा लिखू ,लिखकर,
मैं ,
अमर हो जाऊ। 

कुछ ऐसा करू ,सपनो को,
मैं ,
हकीकत कर  दू। 

कुछ ऐसा देखु ,गिरते हुए को ,
मैं 
खुदा की रहमत दिला  दू। 

कुछ ऐसा चलु ,
मैं। 
भटके हुए मंजिल मिल जाये। 

दिल ने कुछ भूले यादो को,
तराशा तो सोचा ,
माँ ने ,कुछ ऐसा ही, बचपन में कहा था। 
कसक सी उठी , खुद में , 
कुछ करने की कीमत, क्यों है इतनी। 

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फैशन की दुनिया

घोंसला पेड़ो का ,
देखा है ,सर पे उगते हुए।

फैशन की दुनिया है ,
जुराबे भी काफी है, तन ढकने के लिए।

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Sunday, February 26, 2017

मैं वफ़ा हु बेवफा का


मैं वफ़ा हु बेवफा का ,
गमजदा हु बेवफा से  ,
खफा हु खुद मैं  ,वफ़ा क्योंकि, बेवफा से ।

काफिर हो गया हु,
मैं ,
बेवफा की दिलफरोशी से।

हाल  ऐ दिल ,
खुद की बयाँ कर रहा हु ,
इंतिहाँ इस सदा ,की, जुबाँ कर रहा हु।

बेवफा की मंजर में, चमन ये गुलिसिता की  ,
दगा ऐसा जालीम ने मुझको ,
कयामत के जलवे से ,जिंदा ही,
रूबरू करा दी।

जख्म उस बेवफा की, दिल में छिपाये हुए ,
फिर रहा हु मैं, दर बदर, ठोकर खाता।

फरेबी से  इकरार,इजहार ,न जो की होती,
गुलिस्ता अभी मेरा रंगीन होता,
वफ़ा मेरा न यु , संगीन   होता।

तलाशता हु मैं  , बेवफा का ठिकाना,
संजोये हुए, बेवफा का, वो मंजर।
करारे वफ़ा है ,
बेकरार ,लिए हाथ में ,
वफ़ा का ये खंजर।

लहू वफ़ा का जम सा गया है ,
तमन्ना दिल का मर सा गया  है ,
न चाहत है तेरी , बस बेचैनीं है ,बस बेचैनीं है।

आफताब ये तेरा, जो साथ है ,
कर्ज बेवफ़ा का,ये रोके हुए है।
नहीं तो उस मंजर ही , कर्ज ,अदा कर देता।
बेवफा का ये जलन ,  दिल में रिसते  हुए ,
शहर दर शहर ,न यु ही , कराहता फिरता, कराहता फिरता।

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Saturday, February 25, 2017

आदमी से इंसान तो बन जाओ

हवा का रुख हम न भांप पाये  ,
टूटते हुए घरो को हम न जोड़ पाये ,
कुछ करने की चाहत थी, मन में ,
दिल से जुबाँ पे चाहत ,तो ले आये , 
न  जाने क्यों , 
बाजुओ में, वो हौसला न ला पाये। 

वक्त के इस मंजर पे ,अभी जो तुम न सम्भल पाये ,
घुट घुट के मरोगे तुम।  
जो कि , अपने बचेंगे कहाँ , तुम्हारे आसपास ,
उम्र के इस आखिरी पड़ाव पे। 

समस्या है बड़ी ये , 
कौन है अपना इस अंतिम दौर में।

रातो नींद उड़ाई थी, जिस बबुआ के लिए ,
नासमझ, वो कमाने को ,
क्यों इतनी दूर निकल है, पड़ा।  

पढ़ा है उम्र जीने का बढ़ गया है, दोस्त।
देखा है मौत और दूर थोड़ा चल गया है, दोस्त। 
क्या फायदा , अपने जिसके लिए जिये  थे, सदा,
वही हाथ छोड़.
किसी और के साथ , उसके  घर चला गया है, सदा। 


दोस्त  , वो खुद को संभालेंगे कि,
गैर की मुसीबत को गले लगाएंगे। 

वक्त है आदमी से इंसान तो बन जाओ  ,
कब्र में चैन से सोने के लिए , कुछ भला तो कर जाओ। 

पिकचु 

Friday, February 24, 2017

शोर है -शोर है

शोर है शहर में ,
शोर है गाँव में।

शोर की दरकार है,
मुहर्त है चुनाव का ,
हिसाब का किताब का ,
अपनों से अपनों के ,
वादाखिलाफी का।

शोर में आत्मविभोर है ,
गर्व से कहते है,
पर्व है,
ये तो  प्रजातंत्र है।

शोर में  उड़ते हुए ,
धूल फाँकता ,
हर उम्र यहाँ।

बच्चा भी समझता है ,
जुमला है।
मामला तो स्वार्थ का है,
राज का है ,
प्रजातंत्र तो, नाममात्र का है।

शोर के  इस दौर में  ,
बड़ा , मंझला , सँझला , कन्झला ,
नेताओ की  चौकड़ी,
लोमड़ी सी बन धूर्त ,
धकियाने को, है केंद्रित।

शोर  के इस दंगल  में ,
सब है निर्लज्ज।
लुटता है, बिकता है,
खुद ही उतारता है ,
अस्मिता स्वयम का , ये निर्लज्ज ।

शोर तो तंत्र का है ,
विकास के मंत्र  का है।

न जाने क्यों फिर  ,
आज इनकी,
जिव्हा तो निर्लज्ज है, कपटी है ।
स्वयम के शोर में ही  ,
स्वाहा को झपटी है।

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Thursday, February 23, 2017

जाग उठो

भ्रष्ट आचरण ,
भ्रष्ट विचार ,
भात भात के  भ्रष्ट विकार  ,
लील रहा, ये संसार।

भ्रष्ट का साया ,
भ्रष्ट का राज ,
भ्रष्ट का  चक्रव्ह्यु ,
भेद न पाये, कलयुग का  ,
ये भीरु,  अभिमन्यु।

भीतर ,भीतर धधक रहा है ,
भ्रष्ट  ह्रदय में ,
पैशाचिक भ्रमजाल ।

भांति भांति  के रूप लावण्य के ,
ओज से चौंधियाकर ,
भ्रमित मन,निरुत्तर हो ,
सींच रहा है ,क्यों रुग्ण,
अचार, विचार।

विलासिता की आडंबर से,
भरमाये इस निगमित संसार में ,
 मानव कब का  ,भूल गया है,
 समग्र खुमार।

भ्रष्ट वक्त है ,
भ्रम की लीला ,
मदमस्त है दुनिया।

सब खोये है , सब सोये है ,
चकाचौंध की दमक में सारे ।
मन की ज्वाला, भभक रही है ,
बुझने को है, सब्र नहीं अब।

विनती है ,ऐ  दुनियावालो,
वक्त की जंजीरो को तोड़कर ,
जाग उठो,
ऐ  दुनियावालो।

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Wednesday, February 22, 2017

जमी पे बिखरा पत्ता

घूमते फिरते ,हिलते डुलते ,
सुबह सबेरे , की बेला में ,
सर्द मस्तिष्क में ,
रोधक अवरोधक ख्यालो का ,
माप बनाते ,  कितने दूर
गर्म लहू के लकीरो को ,
मन ये तेरा मेरा ,
क्यों  उकेरे जाते ।

फुदक रही गौरइया रानी  ,
कुते टप टप , लार टपकाते।
बंदर , मस्ती की उधम मचाता।

धमाचौकड़ी , पकड़म पकड़ी,
मधुरमय करती सूर्योदय की.
इस बेला को ।

गिरा  जो पत्ता , अपनी डाली से ,
सुर्ख समय से सूखता जाता।
टूटी पत्ती ,बिखरी जमी पे ,
कीट, पतंग, चट पट ,
कुतरती इनको।

जमी पे बिखरा , धूल  खाता ,
रंग विहीन, टुकड़ो में कुतरा ,
पड़ा ये  पत्ता  , आज ,
तलाश रहा है ,
मंजर अपना।

मानव अपना,
शून्य इन संयोगो से।
खाका बुनता ,  उठा पटक का,
दिल  में क्यों रखकर ,
अहम का कोलाहल।

पिकचु






Tuesday, February 21, 2017

अस्थिर मन

अस्थिर मन,
स्थिर होने की अभिलाषा में ,
खोज रहा है,
भोर के उजियाले को।

त्याग क्या तेरा ,
चाह तो तेरा ,
शापित करता। 
नागिन बनकर , मेरे इस जीवन को ,
पल पल डंसता। 

उजाला मन मेरा ,
श्यामल तन मेरा ,
कुचक्र व्यहु की , 
चक्र में फंसकर ,
पल पल, तील तील ,जीवन लीलता। 

स्थिर मन का , 
प्रण था, प्रण है, 
नहीं प्राण प्रतिष्ठा ,तेरा 
इस जीवन  करना। 
उद्देलित , ये अस्थिर मन,
न जाने ,
फिर क्यों ,मेरी बात न  सुनता। 

टुटा दर्पण , 
बिखरा सिंदूर ,
फैला काजल , 
छन छन पायल  ,
बिसरि यादो को ,
अस्थिर करके ,
काले अंधियारे कि , चादर क्यों ओढ़े।  

पाप तो इस मन, 
का धूल सा गया है ,
ज्योति जीवन का ,
बुझ सा  गया है। 
कटुता दिल की , आज तो निश्छल । 
लज्जा तेरी ,
क्यों,
अबतक निर्लज्ज है।

पिकचु 

Monday, February 20, 2017

कर्म-कर्तव्य के , नई शगूफे तू गढ़


अशांत है ,
सब कुछ बिखर गया है ,
कुछ न पाने की चाहत में इतना ,
सबकुछ पा गया हु ।

आज क्या है मेरा ,
कौन सा रूप है ,
मित्र , शत्रु , भाई ,बहन , माँ , बाप।
सारे है,
कृत्य ही मेरे।

और क्या चाहे , ये मन तेरा ,
अमर अजर बनने की चाहत ,
फिर , क्यों पाले।

खोया है किस भ्रम जाल में ,
उमड़े क्यों ये मन ,
दुनियादारी की मकड़ जाल  में।

मन का मन से कटाक्छ है ,
कर्मवीर न धर्मवीर है ,
इस मिथ्या शीशमहल
का क्यों बन बैठा है,
राजा रंक तू।

जो है सो है ,
जड़ या  चेतन ,
खड़ा हुआ मूक ही अब रह।

मन की अलाप का,
ये विलाप है,
जीवन के बचे ,
अभी कई प्रलाप है।

मूढ़ मत बन ,
धैर्य धीर से ,
बेबस मन को सृजित कर ,
कर्म-कर्तव्य के , नई शगूफे तू  गढ़।

पिकाचु

Sunday, February 19, 2017

"भूखे है , नंगे है , मरते है , चिल्लाते है:-"

बैठे हुए लिखते है, किस्मत ,
चंद  मेहरबान।
गिरते हुए उठाने को बैठे है,
चन्द मेहरबान।

पढ़ा आज ,
किसानों की जमी होती है बंजर।
भूखे है , नंगे है , मरते है , चिल्लाते है ,
फिर भी ,
बैठे है कुछ, भद्र ,
लिखने को किस्मत ,
सूली पे लटके ,
इन इंसानो की किस्मत ।

देश है अपना ,
लोग है अपने ,
सियासत है उनकी ,
दुखिया है कौन , मरता है है कौन ,
सब है गौण।

पूंजी ही  बोलता ,
पूंजी ही दौड़ता ,
पूंजी के सामने ,
सारी नीति है मौन।

लिखते है कुछ   ,
प्यार  , मोहबत ,
हारे हुए ,तराने अफ़साने के।
सिमटी , है , तमन्ना ,
बस महबूबा  की।

खोये है कुछ ,
सामानों की दुकानों की,
रौनक बढ़ाने।
जनता भी ऐसी ,
भद्र भी ऐसे , युवा भी ऐसे ,
फिर ,
जुआ कौन खेले ,
ब्यार बदलाव की,
भई  हो कैसे।

लिखता हु मैं , डरता हु मैं ,
सहमता हु मैं।

घबराता है  मन ,
रहने को  संग ,
सियासती की मस्ती में खोये हुए ,
शमशानो की बस्ती में।

चलो हम तुम कुछ करते है ,
पूंजी -सियासत की गठजोड़ को ,
मिलकर बदलते है।
चलो हम तुम कुछ करते है।

पिकाचु





सुनो मत , देखो मत , चुप रहो


भूख ,गरीबी , शोषण ,
बिकता नहीं ,
शून्य समाज में ज्वलंत विषय,
दिखता नहीं।

तड़पता , बिलखता ,
जमी पे पड़ा ,
इंसान है या जानवर ,
कोई समझता नहीं।

मौसम , चाहे सर्द हो या गर्म ,
तपीश या कंपकपी ,
नंगे पैर , फटेहाल ,  कौन।
सोच ही हवा है।

मजा है , कुछ का , इन्हें ,
गर्म , सर्द का फर्क है कहाँ।
दौड़ता है बैठा इंसान  गाड़ियों में ,
आबोहवा,  इसे कहा दीखता।

रोता हुआ  इंसान , सर्वत्र है।

हरे टाट के पीछे छिपा ,
वक्त से परे ढकेलता ,
सियासत है कैसा।
सादिया बीती , सियासत  न गई।

वसूला महसूल परिवर्तन को  ,
आशियाना, अस्पताल ,  रोजी रोटी को ।
रहे वही के वही ,
कर रहे  गुलामी ,
कल थे सामंत ,आज है पूंजीपति।

कैसा  लाईलाज मर्ज है ,
कोख से जन्मा  सिर्फ अपना , परे सब पराये।
सोच है इंसान है या जानवर ,
सोच है ये कैसा।

बोलता जो इंसान , उसे कोई सुनता नही।
सुनो मत , देखो मत , चुप रहो।
न जागने की कसम खाई तो क्या कर लेगा कोई।

चकाचौंध , ही बिकता यहाँ ,  बाकि सब गौण।

पिकाचु 

Saturday, February 18, 2017

दो पैर , दो हाँथ, दो आंख तीक्ष्ण इंसान

युद्ध का अभिषेक ,
मस्तिष्क में आवेग ,
बाजुओ में है वेग , लेकर चल पड़ा 
ध्वंश विध्वंश की चाह में ,
दो पैर , दो हाथ , दो आंख , तीक्ष्ण बुद्धि का या मानव परिवेश। 

खंड खंड में बाँट दिया अक्षांश ,देशान्तर  । 
दो पैर दो हाथ तीक्ष्ण बुद्धि ने चीर का रख दिया,
धरातल की सतत  गति। 

युद्ध की मनोभाव ,में,
बह रहा है राजनीती की दशा। 
कौन रोके इस दहशत को , 
इंसान, अपना कही सो गया है। 

क्षेत्र क्षेत्र  सूचना , भोंपू से कर रही उद्घोष,
जयकार ले रही विध्वंस।  
सत्ता लोलुपता  की , कर रही सर्वनाश । 

मौत तो मौत है , अपना या तेरा ,
इसका या उसका। 
मौत तो मौत है।

अधीरता , कुटिलता बह रहा लहू में ,
तंज करती मानवता , युग युग में खोई हर सभ्यता,
विध्वंश की इस खोज में। 

युद्ध का अभिषेक कर  ,
मैंने तो नहीं कहा,
बोलता है इंसान , यहाँ ,वहाँ , जहाँ , तहाँ। 
फिर कौन है , ढूंढो जरा , चाह किसे है विध्वंश का। 

पूछता है अमन ,
क्यों , इंसान अपना इंसान,
से डरा हुआ।

स्वार्थ , लालच , उत्पाद का उपभोग की मीमांशा में, 
क्यों बंटा  वर्ग , फीट,  खंड खंड में, मैं,
दो पैर , दो हाँथ, दो आंख तीक्ष्ण इंसान, मैं। 

उतर चल , निकल चल ,  शांति की चाह में ,
खोज तू , मैं कौन , अस्तित्व क्या।

इंसानियत हु , इन्तेजार है अशोक का ,
चल पड़ा , गिर पड़ा , थक पड़ा  , रुका नहीं, बस चल पड़ा।

पिकाचु 

Tuesday, February 14, 2017

भगवन कितना कंद्रन करता

भगवन कितना परेशान होगा ,
मन ही मन , इंसान देख,
कंद्रन करता।

सृष्टि की रचना की मद में , भूल गया ,
भगवन अपना , साधुवाद की अमृतवाणी।

रचते रचते,  इतने इंसान ,शिथिल हो गया,
भगवन अपना।
मंद पड़ गयी , इसकी शिल्पशाला।

किट,  कीटाणु , खग या  खर ,
परिस्थिति परिवेश में पलते बढ़ते।
मिलजुल कर ये ताल तन्मयता से ,
धरती को धुरी धरा पे चलने  देते।

क्या सोचा था , नर नारी रचकर ,
सहज सुगमता की, अलाख जगेगी।

मन ही  मन  क्या सोच रहा है ,
कर्म किया है,  तो , भोग तू  भगवन।

इतने  मानव , कितनी मस्तिष्क ,
असंख्य सृजनशीलता , कब तक,
तू ,सहन करेगा।

कही लूट -  खसोट , कही झूठपाट  ,
कही ऊंच नीच  , कही भेद भाव।
राजनीति की इन दोधारी पाटो को ,
कौन रीत से विध्वंश करेगा।

समझ रहा हु ,पीड़ा  तेरी।
इंसान तेरा,  सर्वेसर्वा ,
अहम के,छद्मम में ,लील रहा है,
तेरी , पुण्य प्रताप की मायाजाल।

भगवन कितना निशब्द है ,
इंसान इसका  आज हैवान है।

पिकाचु

Monday, February 13, 2017

मन मेरा हौले हौले डोले

मन मेरा  हौले हौले डोले ,
प्यार तेरा दिल में हौले हौले डोले।

दिल में रख तुझे मैं ,
खाता कसमे , गाता  नगमे,
हौले हौले।

तक़दीर है मेरी , जान है मेरी ,
अभिमान मेरी , दिल है मेरी।
पास मैं तेरे , पास तू मेरे ,
दिल धड़के , यारा , हौले हौले।

पिकाचु 

Sunday, February 12, 2017

टूटे टूटे, दिल ये टूटे

टुटा पत्ता , टुटा टहनी ,
टुटा पेड़  , टुटा आसमान  ,
टुटा टुटा , है , टुटहा मंजर।
टूटे टूटे, दिल ये टूटे।


टूटे लम्हे की सदायी ,
टूटे यादो की तन्हाई ,
टूटे टूटे, दिल ये टूटे।

टूटे तारो की रौशनी में ,
टुटा दिल, वो अपना ,
टुटा अंजुमन, ढूंढता है।
टूटे टूटे, दिल ये टूटे।

टूटे रिश्तो में , झूठे अफ़साने है,
टूटे संसार में , अपने सारे , आज बेगाने है।
टूटे टूटे, दिल ये टूटे।

टूटे धागों से जुड़ा ,
टुटा ये, जो अपना बंधन।
टुटा मैं हु, यहाँ  , गिरता मैं हु, यहाँ।
टूटे किस्से, जो मैं,  गाता हु, अब सदा ।
टूटे टूटे, दिल ये टूटे।

पिकाचु 

Saturday, February 11, 2017

ठहरे हुए, हम यही मिलेंगे

सुबह सवेरे, मन ये इतना चंचल ,
कहता  है , दिन मेरा चिड़ियों सा ,
उड़ने जैसा हो। 

देख  रहा हु , उगती लालिमा, 
कि हरियाली में, सब  झूम रहे है। 

कुछ पेड़ो पर पतझर है, कुछ पे कोपल, 
कुछ सदाबहार हो , बहती पवन संग ,
हौले हौले लहराते, इतराते।  

घूम रहा है वक्त ,
एक छोटी  बगिया है  , बैठे  वृद्ध, 
सुबह सवेरे का मेल मिलाप,
और दुआ सलाम। 

वक्त काटने की है, कवायत, 
एक समय की बात से होता,
भूत ही इनका वर्तमान होता। 
न जाने वर्तमान इनका,
क्यों रूठा  होता।

मन ये पूछता, धर्म कोई भी ,
अभिवादन , प्राण  प्रतिष्ठा, 
है , बड़े बुजुर्गो का,
फिर वक्त का चक्कर, ऐसा क्यों। 

मन ये सोचता ,वक्त ये अपना
बदल गया है, इतना  क्यों।

मन ही मन, थोड़ा ठहरा , ठिठका ,
नफा नुकसान का किया हिसाब।
अंध दौड़ में कुछ पाने की चाहत में ,
किया अवहेलना कर्म , कर्त्यव्य , ज्ञान का। 

जब लगे हुए थे अहम के छदम जयकार को ,
फिर वक्त तो ऐसा आना ही था। 

मैं कौन, सोच ,रहा हु ऐसा क्यों ,
बदल गया हु मैं भी, कितना।  
मैंने  इनसे अपना स्वार्थ निचोड़ा,  
और बस छोड़ दिया। 

मन मेरा कहता ,वक्त की चाल  है ,
बदला  मौसम , लोग आते जाते। 
भान है सबको , ज्ञान है सबको,
फिर कौन ठहरता,  धैर्य है किसको। 

मन मेरा कहता,
तू क्यों ठिठके , ये फल है तेरा। 
जा तू भी,  हवा के झोके संग कोसो फिर ,
तेरे वक्त जो आएगा , 
ठहरे हुए ,  हम यही  मिलेंगे। 

पिकाचु